पहले खुदीराम बोस… दूसरे कौन? 20 की उम्र में मुस्कराते हुए फाँसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारी, जिन्होंने सुनवाई में वकील भी नहीं किया
--- पहले खुदीराम बोस… दूसरे कौन? 20 की उम्र में मुस्कराते हुए फाँसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारी, जिन्होंने सुनवाई में वकील भी नहीं किया लेख आप ऑपइंडिया वेबसाइट पे पढ़ सकते हैं ---
अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कुछ भूले-बिसरे क्रांतिकारियों की बात करें तो उनमें कन्हाईलाल दत्ता का नाम भी आता है। उनका जन्म 30 अगस्त, 1988 को पश्चिम बंगाल के चंदननगर में हुआ था। अपने कॉलेज जीवन में वो प्रोफेसर चारूचरण रॉय से प्रभावित हुए और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए। बंगाल विभाजन के खिलाफ भी उन्होंने आंदोलन किया। 1908 में उन्होंने कोलकाता जाकर ‘जुगांतर’ नामक क्रांतिकारी संगठन की सदस्यता ली थी।
2 मई, 1908 को उन्हें किंग्सफोर्ड नामक अंग्रेज अधिकारी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इन्हें मुख्यतः अलीपुर जेल में अपने साथी क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बोस के साथ मिल कर नरेन्द्र गोस्वामी नाम के गद्दार को मौत के घाट उतारने के लिए जाना जाता है। नरेन्द्र भारत विरोधी गतिविधियों में हिस्सा लेता था। दोनों ही क्रांतिकारियों को 10 नवंबर, 1908 को फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी।
नरेंद्र गोस्वामी अंग्रेजों का मुखबिर भी बन गया था और क्रांतिकारियों का साथ छोड़ कर उसने सरकारी गवाह बनना स्वीकार कर लिया था। साथ ही उसने कई कल्पित और मनगढ़ंत बयान देकर कई लोगों को फँसा दिया था। उसकी हत्या की पूरी तैयारी काफी सूझबूझ के साथ की गई थी। असल में ये घटना अलीपुर में अंग्रेजों पर बम फेंके जाने से जुड़ी है, जिस मामले में इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया था।
शुरू में इन तीनों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन अंग्रेज बाकी क्रांतिकारियों को भी धर-दबोचना चाहते थे। दिक्कत ये थी कि उन्हें उनके ठिकाने मालूम नहीं थे। क्रांतिकारी भी गुप्त रूप से काम कर रहे थे। ऐसे में नरेंद्र गोस्वामी को अंग्रेजों ने मुखबिर बना दिया और उसने सब उगल दिया। साथ ही उसने कुछ निर्दोषों को भी इस मामले में फँसा दिया। ऐसे लोग, जिनका इस केस से कोई सम्बन्ध ही नहीं था।
उसका ये व्यवहार देख कर कन्हाईलाल दत्ता और सत्येन्द्रनाथ बोस को उससे घृणा हो गई। उन्होंने मन बना लिया कि इस गद्दार को मृत्युदंड देना ही उचित होगा। हालाँकि, ये सहज नहीं था। क्योंकि अंग्रेजों ने नरेंद्र गोस्वामी को क्रांतिकारियों के वार्ड से हटा कर जेल के यूरोपियन वार्ड में रख दिया था। लेकिन, कन्हाईलाल दत्ता और सत्येंद्रनाथ बोस किसी तरह बीमारी का बहाना बना कर अस्पताल जाने में कामयाब रहे, जहाँ उन्होंने पूरी तैयारी की।
यूरोपियन वार्ड में बड़ी चालाकी से नरेंद्र गोस्वामी के पास ये गुप्त सूचना भिजवाई गई कि सत्येंद्रनाथ बोस अब क्रांतिकारी गतिविधियों से ऊब गए हैं और वो भी सरकारी गवाह बनना चाहते हैं। सत्येन्द्रनाथ बोस उसके साथ मंत्रणा करना चाहते हैं, ये समाचार भी उसे भिजवाया गया। नरेंद्र गोस्वामी ने सोचा कि दो सरकारी गवाह हो जाने से और अच्छा हो जाएगा। हिंगिस नाम के एक अंग्रेज अधिकारी के साथ वो जेल में सत्येन्द्रनाथ बोस से मिलने पहुँच गया।
वो 31 अगस्त, 1908 को सुबह के लगभग 7 बजे का समय था, जब सत्येन्द्रनाथ बोस अस्पताल की पहली मंजिल के बरामदे में खड़े होकर गद्दार का इंतजार कर रहे थे। अंग्रेज अधिकारी को साथ देख कर वो भीतर के कमरे में चले गए। नरेंद्र गोस्वामी ने भी हिंगिस को बाहर इंतजार करने के लिए कह कर ‘गुप्त मंत्रणा’ के इरादे से आगे कदम बढ़ाए। तभी नरेंद्र की नजर कन्हाईलाल दत्ता पर पड़ी, जो दूसरी तरफ से इधर ही आ रहे थे।
हालाँकि, ये चीज उसे खटक रही थी। दोनों ने नरेंद्र गोस्वामी से बातचीत शुरू की। तभी अचानक से गोलियों की आवाज़ सुनाई दी और नरेंद्र गोस्वामी वहाँ से भागने लगा। उसका हाथ जख्मी हो चुका था। दोनों क्रांतिकारियों ने उस पर गोलियाँ चलाई। लिंटल नाम के अंग्रेज अधिकारी बीच में आया और उसने दोनों को रोकने की कोशिश की। कन्हाईलाल दत्ता ने अपनी पिस्तौल की नाल से उसकी खोपड़ी पर वार किया और खुद को उसकी जकड़ से मुक्त कराया।
इसके बाद कन्हाईलाल दत्ता ने अचूक निशाना लगाते हुए नरेंद्र गोस्वामी को आखिरी गोली दागी। इसके बाद दोनों क्रांतिकारियों ने भागने की चेष्टा किए बिना ही खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। कन्हाईलाल दत्ता ने माफ़ी माँगने या फिर किसी वकील की सहायता लेने से इनकार करते हुए अपना किया स्वीकार कर लिया। उन्हें मौत की सज़ा मिली। सत्येन्द्रनाथ बोस का मामला ऊपरी अदालत में गया और उन्हें भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई।
इस दौरान कन्हाईलाल दत्त को जरा भी हिचक नहीं थी और वो खुश थे, मुस्करा रहे थे। फाँसी के समय तक उनके कमजोर होने का सवाल तो दूर, उनका वजन बढ़ चुका था। उन्हें अब मृत्यु का भय न था। अलीपुर केंद्रीय कारगर में 10 नवंबर, 1908 को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया और भारत माता का ये सपूत मातृभूमि के लिए बलिदान हो गया। फाँसी की अंतिम रात भी वो कुछ ऐसे सोए थे कि उन्हें सुबह जगाना पड़ा था।
उनके अंतिम संस्कार में लोगों की भारी भीड़ जुटी और उनके चिता की आग ठंडी होने तक लोग वहाँ जमे रहे। इससे अंग्रेज सरकार डर गई। उसी साल 21 नवंबर को जब सत्येन्द्रनाथ बोस को फाँसी की सज़ा सुनाई गई तो अंग्रेजों ने उनका शव उनके परिजनों को नहीं सौंपा और खुद ही अंतिम संस्कार कर दिया। अंग्रेजों को डर था कि लोग जुटेंगे तो उसके खिलाफ आंदोलन और तेज़ होता चला जाएगा।
Kanailal met Professor Charu Chandra Roy under whose influence, Kanalilal joined freedom struggle and in 1908, he moved to Kolkata to join a revolutionary group named Jugantar. 2/x
— Priyanka (Astrology Guidance) (@AstroAmigo) August 30, 2018
कन्हाईलाल दत्ता के अंतिम संस्कार के दौरान लोगों की बड़ी भीड़ एक-एक कर उनकी चिता को अग्नि देने के लिए बेताब थी। उनके पार्थिव शरीर को फूलों से ढक दिया गया था। कालीघाट के श्मशान में उस वक़्त एक अलग ही दृश्य था। महिला-पुरुष एवं बच्चे तक ‘जय कन्हाई’ का नारा लगाते हुए पहुँचे थे। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों में पहले बलिदानी खुदीराम बोस थे, उसके बाद कन्हाईलाल दत्ता और फिर सत्येन्द्रनाथ बोस।
अंत में ये भी जान लीजिए कि ‘अलीपुर बम केस’ क्या था। असल में अंग्रेजों ने अलीपुर में एक बड़ी बम की फैक्ट्री का पता लगा लिया था। मई 1908 में अंग्रेजों की छापेमारी में भारी मात्रा में गोला-बारूद व हथियार बरामद हुए थे। क्रांतिकारियों के साहित्य भी बड़ी मात्रा में जब्त किए गए थे। इसके बाद ऑरबिंदो घोष समेत कई स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था। बंगाल और बिहार में ताबड़तोड़ छापेमारी हो रही थी।
अब आपको मजफ्फरपुर बम हमले के बारे में बताते हैं, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। भारतीयों के प्रति घृणा का भाव रखने वाले अंग्रेज जज डगलस किंग्सफोर्ड को निशाना बना कर ये हमला किया गया था। उस समय कलकत्ता का चीफ मजिस्ट्रेट रहे डगलस किंग्सफोर्ड ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को उनके प्रति घृणा का भाव रख के फैसले सुनाए थे। उसके पूरी भीड़ के सामने एक बच्चे को कोड़े मरवाए थे, जिसके बाद क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या की योजना बनाई थी।
जन्माष्टमी के दिन जन्मे कनाईलाल दत्त अपनी ज़िंदगी के 21 साल भी पूरे नहीं कर सके थे। 20 साल की उम्र में ही क्रूर अँग्रेजों ने उन्हें फाँसी और चढ़ा दिया था। अगले दिन जब कन्हाईलाल को फाँसी के फंदे तक ले जाया जा रहा था, तब उन्होंने मुसकुराते हुए वार्डन से पूछा – “मैं कैसा दिख रहा हूँ?” वार्डन के पास कोई जवाब नहीं था। बाद में उस वार्डन ने कहा कि उसने कनाईलाल को फाँसी देकर एक बहुत बड़ा पाप किया है, अगर देश भर में ऐसे 100 लोग हो जाएँ तो क्रांतिकारियों का उद्देश्य पूरा हो जाए।
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